Tuesday 20 September 2011

जेल और जमानत

JAI HIND
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हिरासत में लिए जाने के बाद कुछ दिन हवालात, तिहाड़ जेल और एम्स में बिताने के बाद सांसद अमर सिंह पिछले दिनों अंतरिम जमानत पर कुछ शर्तों के साथ रिहा हो गए। दूसरी ओर, आज भी तिहाड़ में बहुत सारे ऐसे वीआईपी कैदी बंद हैं, जिन्हें जमानत नहीं मिली है और सर्वोच्च न्यायालय तक से उनकी अर्जी फिलहाल खारिज कर दी गई है। इनमें सुरेश कलमाडी के अलावा पूर्व केंद्रीय मंत्री ए राजा और कनिमोझी के साथ-साथ उद्यमी संजय चंद्रा और निर्माता बलवा भी शामिल हैं। अदालत का मानना है कि अपनी पहुंच के कारण राजनेता जमानत पर रिहा होने के बाद गवाहों और सुबूतों के साथ छेड़छाड़ कर जांच को पथभ्रष्ट कर सकते हैं। पर दूसरों के बारे में यह नहीं कहा गया है। फिर भी सभी को सरकारी खजाने को नुकसान पहुंचाने वाली साजिश में शामिल होने के कारण तराजू के एक ही पलड़े पर रखकर तौला जा रहा है। यह तरीका नागरिक आजादी के लिए बेहद खतरनाक साबित हो सकता है, लिहाजा न्यायपालिका को हिरासत और जमानत मामलों में पुनर्विचार करना ही चाहिए।

जब से न्यायमूर्ति कृष्ण अय्यर ने ‘जेल नॉट बेल’ वाले सिद्धांत का प्रतिपादन किया, तभी से इसे सर्वोच्च न्यायालय का फैसला होने के कारण देश का कानून माना जाता रहा है। आपातकाल के अनुभव के बाद यह महसूस होने लगा था कि भारत में हिरासत और गिरफ्तारी विषयक जो कानून औपनिवेशिक काल में बनाए गए थे, वे कितने दुखदायक हो सकते हैं। पुलिस की उत्पीड़क शक्ति किसी को भी शक के दायरे में रख या फरजी रिपोर्ट दायर कर हिरासत में लेनेवाले कानूनों से ही उपजती है। करोड़ों बेगुनाह गरीब देहाती या शहरी नागरिक न तो कानूनों से परिचित हैं और न ही अपने बुनियादी अधिकारों के बारे में जागरूक। जिन्हें इसकी थोड़ी-बहुत जानकारी है, वे भी लाचार हैं। मामले बरसों अदालत में विचाराधीन लटके रहते हैं और आरोपी की उम्र जेल में राई-रत्ती सुख-सुविधा जुटा सकने या हवालात में वहशी यंत्रणा से बचने के प्रयासों में ही कट जाती है।

जो लोग ताकतवर या दौलतमंद होते हैं, उनके लिए कानूनी प्रक्रिया की रफ्तार अचानक तेज हो जाती है। पुलिस वाले भी यह बात भलीभांति जानते हैं कि वे जिस पर हाथ डाल रहे हैं, उसके साथ कैसा सुलूक उन्हें करना चाहिए। यह संयोग नहीं है कि जब भी कोई बड़ा राजनेता किसी घपले-घोटाले में गिरफ्तार होता है, तो वह अचानक तबियत खराब हो जाने के कारण सीधे अस्पताल के वीआईपी वार्ड में पहुंच जाता है और तब तक वहीं बना रहता है, जब तक जमानत न हो जाए। वकीलों की मेहरबानी से उसे अंतरिम जमानत मिल जाती है, और यदि ऐसा नहीं हुआ, तो वह ऐसी ही किसी आरामगाह में मेहमान बना रहता है। पिछले दिनों राम जेठमलानी ने अदालत का ध्यान इस ओर दिलाया है कि जिस व्यक्ति को हिरासत में लिया जाता है, उसे मुनासिब मुचलकों और जमानत पर तत्काल रिहा करना चाहिए। यदि ऐसा नहीं किया जाता तथा उसे लंबे समय तक कारावास भोगना पड़ता है, तो इसे नागरिक की स्वतंत्रता वाले बुनियादी अधिकार का उल्लंघन समझा जाना चाहिए।

सवाल इतना भर नहीं है कि विचाराधीन आरोपी को अंतिम अपील खारिज होने तक निर्दोष ही माना जाना चाहिए। असली मुद्दा यह है कि पुलिस या जांचकर्ता किस व्यक्ति को कितने दिनों तक हवालात में रख सकते हैं या न्यायिक हिरासत में जेल भेज सकते हैं। आम आदमी यह जानता है कि परेशान करने के लिए पुलिस उसे शुक्रवार की शाम को हिरासत में लेकर हवालात पहुंचा सकती है, ताकि उसे जमानत की कार्यवाही का मौका सोमवार की सुबह तक न मिल सके। पढ़े-लिखे साधन-संपन्न नागरिक भी भ्रष्ट पुलिस और जेल अधिकारियों से इतना घबराते हैं कि उनकी सबसे पहली चिंता हवालात में यंत्रणा से बचने की रहती है। इसी का फायदा थाने या जेल में ऊपरी कमाई जुटाने के लिए उठाया जाता है। यह भी सर्वविदित है कि जेल वाले डॉक्टर की इतनी पूछ क्यों होती है। उसकी कृपा से और उसी के नुसखे से विचाराधीन बंदी ही नहीं, खूंखार अपराधी भी अस्पताल का सुख भोग सकते हैं। यह कल्पना करना कठिन है कि प्रभावशाली नेता या बाहुबली अपराधी के दबाव या लालच की अनदेखी कर कोई डॉक्टर ऐसी रिपोर्ट अदालत को सौंपने का दुस्साहस कर सकता है, जिसके कारण आरोपी वापस जेल में पहुंच जाएगा।

इस बार सबसे विडंबनापूर्ण स्थिति यह है कि राजनेताओं के साथ-साथ नामी-गिरामी उद्योगपति भी लपेटे में आ चुके हैं। सबसे विचित्र उदाहरण यूनीटेक के पूर्व अध्यक्ष और प्रबंध निदेशक संजय चंद्रा का है। सीबीआई स्वीकार कर चुकी है कि उसके पास ऐसा कोई साक्ष्य नहीं, जो दर्शाता हो कि उनकी कंपनी के पैसे का कोई लेन-देन पूर्व मंत्री या नौकरशाहों के साथ हुआ है। तब भी वह यह जिद नहीं छोड़ रही कि संजय चंद्रा भी कनिमोझी और राजा के साथ 2जी घोटाले वाली साजिश में शामिल थे। अगर मान भी लें कि इस आरोप में कुछ दम है, तब भी यह समझना कठिन है कि उन्हें लगभग छह महीने से जमानत क्यों नहीं मिल रही? जांच की समयसीमा कानून में तय है। यदि आरोपपत्र इसके भीतर दायर नहीं होता, तो अभियुक्त को रिहा करना अदालत का कर्तव्य है। इसके बावजूद ताकतवरों और कमजोरों को मिलते न्याय में फर्क क्यों है, इस पर इस सार्वजनिक बहस का समय आ गया है।

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